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यही है मेरी कहानी .
तुम्हारी खुबसूरत वादियों ने जब पुकारा ,तो आकर्षित हुए बिना न रह सकी .
विशाल गिरी सा हृदय ,उन्नत गर्वित शीर्ष ,
समतल पर हिम हो जैसे ,श्वेत शुभ्र और नर्म .
अथाह सागर सा व्यक्तित्व ,अल्हड नदिया सा कलकल स्वर ...
धुले शीशे से, पारदर्शी- तुम,
ठगी सी रह गयी मैं .
पर तूफां ने किसको छोड़ा है ...
हर पौधे को छेड़ा है और हर कली को तोडा है .
उखड़ते डेरे के साथ -साथ ,जब मेरे पावं भी तुम्हारी जमीं से उखड़ते प्रतीत हुए ,
तो मैंने घबराकर तुम्हारी तरफ देखा ...
तुम्हारी मुस्कान ने बहुत कुछ बयाँ कर दिया ,
तुम्हारी आखें मानो कह रही हों ...
डेरे का उखड़ना तो शुभ हुआ ,नींव तो पहले ही डाल चुकीं
क्या बसेरा नहीं करोगी?
Uss jagah ne hi jab aapke mann mein neenv kar rakha hai, toh aap wahaan basein ya nahin, usse kya farak padta hai?
ReplyDeleteBahut umdaa
CRD
www.scriptedinsanity.blogspot.com
Do visit
Thank you CRD.Glad you liked it.It is one of my old poems ,written as a college student ,obviously in love.
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