Tuesday, February 14, 2012

मुझे जीने दो

क्यूँ उठूँ मैं सुबह जब उठते हो तुम ,
नहीं आती मुझे नींद जब सोये ये दुनिया.

इंतज़ार करने दो मुझे,नयी सुबह की है ये धुन ,
ढलने दो ये सलेटी शामें ज़रा,गहराने दो अँधेरा,
 आसमानी तारों को तकती  रात  पर हक है मेरा .

मत कुचलो ,ना ताडो  लोगों ,
तुम्हारी कालीन पर पड़ा धूल का कण ही सही
नाक में दम तो तब भी कर सकता हूँ मैं .
                                                                                       
लेकर एक नन्हीं सी आरज़ू ,
क्यूँ जी नहीं सकता मैं  यूँ ही कहीं ?    

मत तोलो मुझे बार- बार  अपनी उम्मीदों के तराजू पर
खरा ना उतरूंगा कभी, हल्का ही नज़र आऊँगा हर बार .

11 comments:

  1. Kya baat hai Sharmila ji....Bahut khoob kahi... :)

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  2. bahut khoob!

    The desire to live one's own life, to be uncontrolled by others, not to be judged by standards of others, not be obliged to meet the expectations of others and to have one's own preferences etc etc is well brought out.

    Regards
    GV

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    1. A tough task but very important one in life .Thank you :)

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  3. सुन्दर सी भावपूर्ण प्रस्तुति.

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  4. ..लेकर एक नन्हीं सी आरज़ू ,
    क्यूँ जी नहीं सकता मैं यूँ ही कहीं ?
    बेहतरीन भाव

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  5. बहुत अच्छी पंक्तियाँ हैं, कभी कभी, मेरा भी कुछ ऐसा कहने का मन हो आता है, पर इस प्रकार की अभिव्यक्ति कभी न हो पाती मुझसे |

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  6. आपकी रचनाएँ अक्सर पढ़ती हूँ .जानदार अभिव्यक्ति करती है आपकी कलम ,अतः आपकी ओर से अपनी तारीफ़ , सर आँखों पर .

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