रहगुज़र हुए ज़माना बीता
उस वक़्त जो चल पड़े
थमें ना तलक आज
न वक़्त ,न सहूलियत ही रही,
मुड़ के देखे जो छोड़ आए पीछे
गली के छोर पर बौना मकान
वक़्त से झूझती, बेहाल,
टूटे आइने में झुर्रियाँ निहारती
बूढ़ी काकी, सफ़ेद बाल ।
बिन ब्याही बुआ ,आस बांधे
के कब कोई करे रुख़्सत
इस घर से ,जहाँ जनी, पली
पर जो कभी उसका ना था
क्या जाने वो कि उस जैसी
लड़कियों के अपने घर नहीं होते
अधपकी दाढ़ी के पीछे काइयाँ सी हँसी
इधर आना बेटा कह कर पीठ सहलाते
फिर राह भटकते उसके खुरदरे बदसूरत हाथ
चेहरे पर टिकी, तौलती भूखी आँखें
एक पिता ताउम्र साबित करता हुआ
कभी शब्दों की ,कभी लातो की बातों से
अपनी मालकियत ,अपने परिवार पर
बचपन से ग्रसित भावनाओं का ग़ुलाम
वक़्त बदलने की आस में ज़िंदा
इंसान तब भी था ,आज भी है
गर्दन घूमते ही लगा कि सब वही है ,सब यहीं है
क्या था ऐसा पीछे जो अब नहीं है ।
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