उम्र की कड़ियाँ गिनते - गिनते जब मैं जीवन के दुसरे छोर पर पहुंची,
तो खुद को नितांत एकाकी महसूस किया ...
सुना था कड़ियाँ जुड़ने के लिए होती हैं ..कड़ी से कड़ी जुड़कर एक ज़ंजीर बनती है ..
और फिर जनम लेते हैं सृष्टि के बंधन..
मैंने भी जोड़ी बहुत सी कड़ियाँ,कुछ जंजीरें भी बनी ,पर बंधन....
एक कड़ी जो कमजोर थी ,अजन्मे ही रहे..
जुड़ने से पूर्व ही टूट गए.
इस छोर पर पहुँचते -पहुँचते,लडखडाते क़दमों से,उद्वेलित नज़रों से , एक बार पीछे देखा,
किसी साए कि तलाश में,आतुर ह्रदय ने दूर दूर तक खोजा,
फिर थके कदम और निढाल होने लगे,
क्या इस सृष्टि में एक भी साथी,एक भी बंधन मेरे लिए नहीं था ..
चिलचिलाती धुप में क्या नहीं मिलेगी छाया..
तभी एक चिरपरिचित आकृति को अपने करीब,बहुत करीब पाया,
अपने इस एकमात्र साथी को अपने आँचल में लपेटा और पूर्ण वेग से दुसरे छोर कि ओर दौड़ पड़े,
मैं और मेरा साया .....
अंतिम कड़ी के जुड़ते ही एक अटूट बंधन का जनम हुआ,
कौन कहता है कि अकेले आये हैं तो अकेले ही जायेंगे,
मेरी अंतिम यात्रा में हमसफ़र हैं ,
मैं और मेरा साया ...
और फिर जनम लेते हैं सृष्टि के बंधन..
मैंने भी जोड़ी बहुत सी कड़ियाँ,कुछ जंजीरें भी बनी ,पर बंधन....
एक कड़ी जो कमजोर थी ,अजन्मे ही रहे..
जुड़ने से पूर्व ही टूट गए.
इस छोर पर पहुँचते -पहुँचते,लडखडाते क़दमों से,उद्वेलित नज़रों से , एक बार पीछे देखा,
किसी साए कि तलाश में,आतुर ह्रदय ने दूर दूर तक खोजा,
फिर थके कदम और निढाल होने लगे,
क्या इस सृष्टि में एक भी साथी,एक भी बंधन मेरे लिए नहीं था ..
चिलचिलाती धुप में क्या नहीं मिलेगी छाया..
तभी एक चिरपरिचित आकृति को अपने करीब,बहुत करीब पाया,
अपने इस एकमात्र साथी को अपने आँचल में लपेटा और पूर्ण वेग से दुसरे छोर कि ओर दौड़ पड़े,
मैं और मेरा साया .....
अंतिम कड़ी के जुड़ते ही एक अटूट बंधन का जनम हुआ,
कौन कहता है कि अकेले आये हैं तो अकेले ही जायेंगे,
मेरी अंतिम यात्रा में हमसफ़र हैं ,
मैं और मेरा साया ...
आदरणीया शर्मिला जी
ReplyDeleteनमस्कार !
इतनी संवेदनात्मक कविता !
इस छोर पर पहुँचते -पहुँचते,
लडखडाते क़दमों से,उद्वेलित नज़रों से ,
एक बार पीछे देखा,
किसी साए कि तलाश में,
आतुर ह्रदय ने दूर दूर तक खोजा,
…फिर थके कदम और निढाल होने लगे !
क्या इस सृष्टि में
एक भी साथी, एक भी बंधन
मेरे लिए नहीं था … ?
आह ! अंतःपीड़ा की पराकाष्ठा !!
… और निष्कर्ष - परिणाम …
मेरी अंतिम यात्रा में हमसफ़र हैं ,
मैं और मेरा साया … !
वैसे हर कोई अपना साथी है , और यह भी पर्याप्त है शायद …
बहरहाल एक श्रेष्ठ रचना के लिए साधुवाद !
…और निवेदन है, अगली बार एक कविता सुखद् अनुभूतियों पर हो जाए … !!
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
dhanyavaad aapko acchi lagi!jald hi aapke sujhaav par dhyaan doongi.
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