गर्मी की रातों को ,खुले आसमान के नीचे ,
लेटे हुए अक्सर देखा करती हूँ ,
रास्ते के निर्जीव खम्बे को ....
बेजुबान प्रहरी सा ये खम्बा ,ना जाने कब से यूँ ही खडा है
उनींदा सा ....
अपने धीमे से प्रकाश से , आस -पास के नन्हे से दायरे को थोड़ी सी रौशनी देता हुआ
ना जाने क्यों दिन - प्रतिदिन इसका तेज मद्धम होता प्रतीत होता है ,
और साथ ही चारों ओर मंडराते परवाने भी ..
देखते देखते जाने कब निद्रा मुझे अपने आगोश में ले लेती है पता नहीं चलता ,
पर ये क्या! प्रातः कालीन उजाले में वही खम्बा कितना निरीह जान पड़ता है ...
जैसे अपने ही प्रकाश से लजा रह हो !!
रात आने तक यही सोचती हूँ कि ,क्या जाने आज रोशनी होगी या नहीं ....
जानती हूँ और डरती हूँ ,
एक दिन इसे भी निद्रा अपने आगोश में ले लेगी !
शायद परवाने भी जान गए हैं ,इसीलिए उनका यहाँ आजकल ,
आना- जाना और झूम -झूम कर गुनगुनाना कुछ कम हो गया है .....
i am not really into hindi poetry.however your poem conveyed a sense of loneliness. i would have made the ' parvane' stay around for even longer now that they feel the 'khambas' days are numbered.i am the proverbial optimist!
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