Wednesday, August 8, 2012

Ummeedein - उम्मीदें

सुनते  हैं उम्मीद  पर  दुनिया   कायम  है

वैसे,   उम्मीद  का  क्या   है .?..

कहीं भी लगा लीजिये , कमबख्त  लग  जाती  है

खैर तो  उसकी  नहीं  जिससे  ये   लगायी  जाती  है

अरे ! लगाने   से  पहले   पूछ   तो   लिया   होता,

 बेचारा , खरा   उतरा   तो   भला  हो  उसका ,

जो   निकला    नाउम्मीदा  तो   कहेंगे   ,

                                         निकम्मा   नाकारा   !


लगा   कर    खुद से  सिर्फ  उम्मीद

 खरे  उतरो     उन्हीं   पर   ही..

झांको   तो  अपना  गिरेबान  ही बहुत   है

उम्मीदें    तो  ऐसी  हों  ...

न   औरों  की   तुमसे    ना   तुम्हारी  किसी  से   हों .

~~शर्मिला~~

                       

  

6 comments:

  1. काश दूसरों से उमीदें न रखना इतना आसान होता,

    जैसा तुलसीदास ने लिखा है, वैसा मैं बन जाना चाहता,

    "धूत कहो, अवधूत कहो, राजपूत कहो कि जुलावा कहो कोऊ,
    काहू की बेटी सों बेटा न व्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ,
    मांग के खैबो, मसीत के सोइबो, न लेइबो को एक न दैबो को दोउ ||"

    उत्तम लेख !

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  2. बिलकुल सही कहा आपने ,काश ये इतना ही आसान होता ...
    इसीलिए कभी पढ़ कर कभी लिख कर याद कर लेती हूँ :)

    बहुत पहले पढ़ी कुछ पंक्तियाँ याद दिला दी आपने,
    मेरी रचना पढने के लिए शुक्रिया :)

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  3. उम्मीद पर दुनिया कायम है, !!

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  4. Nice , yes very true . We expect too much from others , when we don't get its result either in heart-break or spoiling the mood . But why we do so...is it the connect that happens so naturally ..which further adds hope to that and further elongates to give rise to trust.. Life is such we being emotional and have varied diverse culture. Everything comes naturally ...before we know it we are in its elements.

    Nicely written :)

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